कोविड-19 के कारण देशों की घरेलू प्राथमिकताओं के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का रूप भी बदलता दिख रहा है। वैश्विक कूटनीति के मोर्चे पर अमेरिका का डंका कमोबेश शीत युद्ध के बाद से बजता रहा है। वह दुनिया का सर्वशक्तिमान देश माना जाता है और वैश्विक राजनीति को बदलने में सक्षम रहा है। मगर अब जिस तरह से सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा तमाम देशों की प्राथमिकता में मजबूती से शामिल होने वाली है, उसी तरह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी कई तरह के उतार-चढ़ाव देखने को मिल सकते हैं। संभव है, आने वाले दिनों में भारत जैसे देश एक नए नेतृत्व की भूमिका में दिखें। सवाल उठता है कि इस कयास की वजह क्या है?
दरअसल, अभी तक यही माना जाता रहा है कि अमेरिका में सारी चीजें जरूरत से ज्यादा हैं। मगर नए कोरोना वायरस ने उसे बेपरदा कर दिया है, खासतौर से स्वास्थ्य-सेवा के मोर्चे पर। वहां जिस तरह से इस संक्रमण का प्रसार बढ़ रहा है और जिस पैमाने पर लोगों की जान जा रही है, वह चिंताजनक होने के साथ-साथ चौंकाने वाली है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमेरिकी स्वास्थ्य-सेवा को वैश्विक स्वास्थ्य सूचकांक में पहला स्थान हासिल है। जाहिर है, कोरोना वायरस का संकट यह संकेत है कि तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर अमेरिका में कई कमियां हैं। अब इन्हें दूर करने की कोशिश होगी। इसके अलावा, वहां सामाजिक सुरक्षा की मांग भी तेज होगी। बेरोजगारी की समस्या पहले से ही रही है, जो आने वाले दिनों में गहरा सकती है। इन घरेलू समस्याओं से पार पाने का स्वाभाविक दबाव अमेरिकी राष्ट्रपति पर होगा।
बेशक फौज, अंतरिक्ष विज्ञान या नई प्रौद्योगिकी पर अमेरिका का विशेष जोर रहा है, मगर यह भी सच है कि जैविक महामारी से बचने को लेकर उसने जो तैयारी की थी, वह धरी की धरी रह गई। ऐसे में, अमेरिका अपनी इन नीतियों की फिर से समीक्षा करेगा। कारोबार के मामले में ‘अमेरिका फस्र्ट’ उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता रही है, लिहाजा जैविक महामारी के बचाव को लेकर भी वह इसी नीति के तहत अब काम करता दिख सकता है। संभव यह भी है कि अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को बरकरार रखने के लिए वह रोबोटिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धिमता) पर ज्यादा ध्यान दे।
इसी तरह, चीन की वैश्विक भूमिका भी आने वाले दिनों में बदल सकती है। बीजिंग इन दिनों अपनी बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) पर तेजी से आगे बढ़ रहा था। मगर अभी तक का ट्रेंड यह है कि जिन-जिन देशों में बीआरआई परियोजनाओं पर काम हो रहे थे, वहां कोविड-19 का संक्रमण ज्यादा हुआ है। इससे इन परियोजनाओं को काफी धक्का लगा है। चूंकि इस वायरस का प्रसार उस समय शुरू हुआ, जब चीन नए साल के स्वागत में डूबा था, इसीलिए नए साल का जश्न मनाकर जब लोग अपने-अपने कार्यस्थल पर वापस लौटे, तो अपने साथ कोरोना वायरस भी ले आए। नतीजतन, जो-जो देश चीन के ज्यादा करीब रहे, वहां-वहां पर इस वायरस का संक्रमण काफी ज्यादा हुआ है। अब देखने में यह भी आ रहा है कि कोरोना वायरस की अपनी जंग जीतने के बाद चीन ने जिन-जिन देशों को चिकित्सकीय उपकरण भेजे, उनकी गुणवत्ता 40 फीसदी तक खराब थी। कई यूरोपीय देशों ने तो खुलकर इस पर नाराजगी जाहिर की है। इससे भविष्य में भी चीन के उत्पादों पर भरोसा डिग सकता है।
रही बात दक्षिण एशिया की, तो पाकिस्तानी रणनीति से इस क्षेत्र पर दीर्घावधि में असर पड़ सकता है। असल में, पाकिस्तान अपने यहां के संक्रमित मरीजों को पीओके (पाक अधिकृत कश्मीर) और गिलगित-बाल्टिस्तान में रखने की रणनीति पर काम कर रहा है। चूंकि चीन की परियोजनाओं का विरोध इन इलाकों के लोग करते रहे हैं और इसके कारण पाकिस्तानी हुक्मरानों से वे नाराज भी रहे हैं, लिहाजा इस्लामाबाद का अपनी इस रणनीति पर आगे बढ़ना दक्षिण एशियाई क्षेत्र की भू-राजनीति को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है।
साफ है, आने वाले दिनों में बेल्ट रोड इनीशिएटिव, ग्लोबल कम्युनिकेशन, विमानन, पत्तन उद्योग जैसे तमाम क्षेत्रों को तेज धक्का लगने वाला है। खासकर पर्यटन उद्योग का संकट तो लंबे समय तक बना रहेगा। होटल उद्योग का रूप भी बदल सकता है। बहुत मुमकिन है कि आने वाले दिनों में यात्रा के क्रम में भी पर्यटक आइसोलेशन में रहें या फिर अपनी सुरक्षा के उपकरण साथ लेकर चलें। ऐसी सूरत में भारत के सामने चुनौती भी होगी और अवसर भी होंगे।
फिलहाल, भारत सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता कोविड-19 को पराजित करने की है। मगर जिस तरह से लॉकडाउन की शुरुआत में महानगरों से मजदूरों का हुजूम अपने-अपने गांव की ओर निकल पड़ा, उसे देखते हुए सामाजिक सुरक्षा को लेकर यहां भी नई नीति बनानी होगी। सरकार को कृषि संकट खत्म करने को लेकर खास काम करना होगा। ग्रामीण श्रम का इस्तेमाल गांव या नजदीकी शहरों में करने के माकूल इंतजाम करने पडे़ंगे। इसी तरह, शिक्षण संस्थानों की मजबूती पर भी काम करने की दरकार होगी। स्वास्थ्य सेवा की चुनौतियां तो हैं ही।
अवसर की बात करें, तो वैश्विक कूटनीति में पैदा होने वाले खालीपन को भारत भर सकता है। इसके लिए हम तैयार भी दिख रहे हैं। सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट के मामले में हम सबसे आगे हैं। अपने हित में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। रोबोटिक्स और कृत्रिम बुद्धिमता में आगे बढ़ना हमारे लिए फायदेमंद होगा। इसी तरह, पिछले दिनों दक्षेस के सदस्य देशों के शासनाध्यक्षों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से जोड़ने की अच्छी पहल हमारी सरकार ने की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी वैश्विक नेतृत्व क्षमता का परिचय जी-20 देशों की बैठक में भी दिया और कोरोना से जंग को वैश्विक लड़ाई में बदलने का आह्वान किया। यही कारण है कि नए वैश्वीकरण में भारत की नेतृत्वकारी भूमिका की बात दुनिया के अनेक देश करने लगे हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा के मामले में भी हम कई देशों से बेहतर हालत में हैं। देश में डॉक्टरों की कमी नहीं है, जरूरत है, तो बस उन्हें अच्छी सुविधाएं देने की। अगर केंद्र सरकार इस दिशा में कुछ ठोस कर पाई, तो स्वास्थ्य-सेवा के मामले में भी दुनिया के तमाम देश भारत की नजीर देंगे।

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